श्रीश्याम मंदिर खाटू श्यामजी सीकर राजस्थान (Shree Shyam Mandir Khatu Shyamji Sikar Rajasthan)

Shree Shyam Mandir Khatu Shyamji Sikar Rajasthan
श्रीश्याम मंदिर खाटू श्यामजी सीकर राजस्थान

 

श्रीश्याम मंदिर खाटू श्यामजी (सीकर , राजस्थान)

 

|| दरबार अनोखा सरकार अनोखी , खाटूवाले की हर बात अनोखी ||

|| शीश के दानी महाबलवानी ,खाटू वाले श्याम,तेरा जयकारा है ||

|| जयकारा है जयकारा,श्याम धणी का जयकारा ||

 

परिचय (खाटू श्यामजी)

हिन्दू धर्म के अनुसार, श्री खाटू श्याम जी के बचपन का नाम बर्बरीक था। बर्बरीक का जन्म मध्यकालीन महाभारत के समय हुआ था।   बर्बरीक के जन्म एवं माता पिता के लिए भिन्न भिन्न ग्रंथो एवं पुराणों में भिन्न भिन्न वर्णन है परन्तु महाभारत ग्रन्थ एवं स्कंध पुराण के अनुसार बर्बरीक पांडव पुत्र गदाधारी भीम के पुत्र घटोत्कच और प्रागज्योतिषपुर (वर्तमान आसाम) के राजा दैत्यराज मूर की पुत्री कामकटंककटा “मोरवी” के पुत्र थे। खाटू श्याम जी ने द्वापरयुग में श्री कृष्ण ने बाबा श्याम को यही वरदान दिया था कि वे कलयुग में उनके नाम श्याम से पूजे जाएँगे। जैसे-जैसे कलियुग का अवतरण होगा, तुम श्याम के नाम से पूजे जाओगे। तुम्हारे भक्तों का केवल तुम्हारे नाम का सच्चे दिल से उच्चारण मात्र से ही उद्धार होगा। जो भी प्राणी मन से ध्यायेगा मनायेगा और प्रेम-भाव से पूजा करेंगे उसकी सकल मनोकामना बाबा स्वंय पूर्ण करेंगे और आज कलिकाल में ये चरितार्थ भी हो रहा है। इसी वरदान स्वरूप आज भारत ही नहीं विश्व में भी बाबा श्याम के मंदिर विद्यमान है। प्रभु अपने निज आसन पर बैठकर अपने निज भक्तों की झोलियां भर रहे है। श्रीखाटू श्याम जी मंदिर (सीकर जिला, राजस्थान) जहॉ असंभव से असंभव कार्य पूर्ण होते देखे गये है।

खाटू का इतिहास (सारांश)

– खटवांग राजा के नाम पर गांव का नाम खाटू

– बाबा श्याम प्रकट हुए तो बना खाटू श्याम

– रूपावती नदी से बहकर श्याम कुंड में आया था शीश

– श्याम कुंड में मिली शीश की प्रतिमा (मीरा के भक्ति काल मे ग्यारस के दिन बाबा का शीश श्याम कुण्ड में मिला था।)

– शीश पर मुकुट के समान आकुर्तिया बनी हुई है। यह उकेरी हुई सी प्रतीक होती है। इसी शालिग्राम श्याम रूप पर बाबा श्याम की आकृति बनी हुई थी जिसे अब श्रद्धालु जिस रूप में देखते है । शीश पर चन्दन का लेप किया जाता है ।

– सबसे पहले शिवालय में स्थापित हुई प्रतिमा

– 1720 में बना मन्दिर

– मूल मन्दिर विक्रम सम्वत 1084 नर्मदा कँवर द्वारा बनाया गया था।

– औरंगजेब ने 1679 ईस्वी में तोड़ दिया था भक्तो ने छुपा ली थी प्रतिमा

– मन्दिर पहले मस्जिद के पास बने शिवालय के पास बनाया गया था। यही पूजा अर्चना की जाती

– औरगजेब की मौत के 41 साल बाद नया मन्दिर बनाया गया

– देवउठनी एकादशी विक्रम संवत 1777 में हुई थी नए श्री श्याम मन्दिर की हुई थी स्थापना| तारीख थी 10 नवंबर 1720 वी स 1777 वार रविवार था। जोधपुर राजपरिवार ने अब जहा मन्दिर है वहा स्थापना की| पुराना मन्दिर नए मन्दिर से 150 मीटर की दूरी पर।

खाटू का इतिहास (विस्तृत)

खाटू नाम से राजस्थान में तीन गाँव हैं – (1) जोधानी की खाटू (2) चांपवती की खाटू (ये क्रमशः छोटी व बड़ी खाटू कहलातें हैं तथा जोधपुर जिले में स्थित हैं) (3) खाटू श्यामजी का, जो हमारे ईष्टदेव श्रीश्याम प्रभु का पावन धाम है।

राजपूत इतिहास विशेषज्ञ स्व॰ पं॰ झाबरमल जी शर्मा के अनुसार श्रीश्याम धाम खाटू को क्षेत्र रामायण काल में मरुकान्तर, महाभारत-काल में मत्स्य देश, अशोक एवं चौहान काल में ‘सपलादक्ष’ तथा अनन्त देश, संवत् १६७८ (1678) के परवर्तीकाल में शेखावाटी और स्वतंत्र भारत में राजस्थान प्रदेश के सीकर जिले का भू-भाग है। ईसा पूर्व दूसरी सदी के अशोक के भाबरु (बैराठ) और विक्रमी २०३० (2030) के हर्ष के शिलालेखों में इस परगने का नाम ‘सपादलक्ष एंव अनन्त देश’ होना पाया जाता है।

इसके अनुसार इस क्षेत्र में रणपल्लिका (वर्तमान राणेली, जिला सीकर) के विरक्त ब्राहम्ण अल्लहट ने विक्रमी २०१३ (2013) में हर्षदेव के मन्दिर का निर्माण शुरू किया और चौहानवंशी राजाओं ने इसका स्थाई प्रवन्ध किया। मुहम्मद तुगलक के शासन काल विक्रमी १३८२ (1382) के आसपास तक इस क्षेत्र में चौहान-निर्वाण-चन्देल शासक परम्परा अक्षुण्ण बनी रही। इस शासक वंश परम्परा के कमजोर पड़नें पर गौड़ क्षत्रियों ने पोकरण (रामदेवरा) से लेकर वर्तमान खाटू अपनें छोटे-बड़े क्षत्रप राज्य कायम करने शुरू कर दिये। इसके पश्चात औरंगजेब ने खण्डेला परगना के शेखावतों को दबाने और परगना के मन्दिर गिराने के लिये दराव खाँ के नेतृत्व में शाही सेना भेजी। वि॰ सं॰ १७३५ (1735) में छापोली के बहादुर शेखावत सुजानसिंह के नेतृत्व में परगने के सैकडों क्षत्रियों ने मिलकर शाही सेना का मुकाबला किया और एक-एक कर ये क्षत्रिय शहीद हो गये, तभी शाही सेना परगने के मन्दिरों को गिरा पाई।

वि॰ सं॰ १७३५ (1735) में श्यामधाम खाटू में जोधपूर नरेश की रानी व खण्डेला की बाईजी के सीधे शासन में था तथा जोधपुर की रानीजी की तरफ से अनन्तराम मेहता खाटू में रहकर राज-काज चलाते थे। खण्डेला परगने के मन्दिर गिराने के दौर में ही खाटू बाजार स्थित श्रीश्याम मन्दिर गिराकर शाही सेना ने इसकी जगह मस्जिद तामीर करवादी थी।

इस विनाश के बाद पूर्व मन्दिर के समीप ही अनन्तराम मेहता ने श्यामविग्रह की दुबारा प्रतिष्ठा करवा दी। जहाँ से यह शीर्षविग्रह वि॰ सं॰ १७७७ (1777) में नवनिर्मित मन्दिर में स्थापित होने के बाद से यहाँ आज तक पूजित है।

इतिहास कार देवेन्द्र जोशी के अनुसार नया मन्दिर औरंगजेब की मौत के 41 साल बाद बना है।

कुछ लेखकों की धारणा है कि प्रथम उत्खनन में प्राप्त श्रीश्याम विग्रह पूरे आकार में था और श्रीश्याम मन्दिर के ध्वंस के दौरान र्शीष विग्रह ही बच पाया होगा जो आज पूजा जा रहा है। विग्रह खण्डित होने की धारणा निराधार है। क्योंकि नर्मदेश्वर में प्राप्य शालिग्राम शिला बेहद कठोर होती है और घण की चोटों से बिखर तो सकती है, किन्तु खण्डित नहीं। फिर पौराणीक वर्णन के अनुसार श्री बर्बरीक के केवल शीश को अमृत से सींचा गया था। अतः श्रीश्यामविग्रह के पूरे आकार में होने या उत्खनन में मिलनें का प्रश्न  ही नहीं था। इससे यह स्पष्ट है कि शाही सेना ने केवल मन्दिर गिराया था और इस अद्वितिय देवविग्रह को अपना निशाना नहीं बना पाए।

श्रीश्याम देव की पूजा होने का प्रथम लिखित साक्ष्य दुर्गादास कायस्थ की ‘श्यामपचीसी’ है (आमेर के राजा रामसिंह के राजसेवक व कवि द्वारा लिखित काव्य रचना)। कवि ने दरबारी बोली मिश्रित व्रजभाषा शैली में श्रीकृष्ण के उदार चरित्र के रुप में श्रीश्याम महिमा का बखान किया है। ‘श्याम पचीसी’ से साभार उद्धत यह रचना इस तथ्य का साक्ष्य है कि वि॰ सं॰ १६३१ (1631) तक खाटू धाम व श्रीश्यामदेव की महिमा पूरे भारत में फैल चुकी थी, तथा राजा व रंक सभी अपने उद्धार के लिए श्रीश्यामदेव के शरणागत होने के लालायित थे। इस काल में श्रीश्यामधाम की यात्रा अति साहसी और श्रीश्यामदेव को पूरी तरह समर्पित भक्तिभाव वाले विरले भाग्यशाली ही कर पाते होंगे।

इस विवेचना से श्रीश्यामदेव के आर्विभाव का समय वि॰सं॰ १४०० (1400) के बाद और १७३१ (1731) के पूर्व में होना साबित होता है। गौड़ों के साथ अपने सामाजिक रिश्ते को अनदेखा कर राव शेखा ने रास्ता चलती क्षत्राणी से बेगार लेने के प्रतिशोध में घोड़ों की संयुक्त शक्ति को ललकारा था और दांता रामगढ़ के समीप भयंकर युद्ध में लगे घावों के कारण वि॰सं॰ १५४५ (1545) में रावशेखा ने समरांगण में अपने प्राण त्यागे थे। इस विवेचना से प्रतित होता है कि वि॰सं॰ १४०० (1400) से १५४५ (1545) तक खाटूग्राम नहीं बसा था और ना ही श्रीश्यामदेव वहाँ आर्विभूत हए थे, अन्यथा दांता-रामगढ़ की जगह यह १५४५ (1545) की लड़ाई खाटू धाम में ही लड़ी जाती। इस विवेचना से इस धारणा को बल मिलता है कि १५४५ (1545) से १७३१ (1731) वि॰सं॰ के बीच किसी समय खाटूग्राम बसने और उसके कुछ काल बाद यहाँ श्रीश्यामदेव के आर्विभूत होने में पर्याप्त सच्चाई है।  वि॰सं॰ १७३१ (1731) तक श्रीश्यामदेव की महिमा को पूरे भारत में फैलने में डेढ़ सदी के आसपास का समय लगा हो, तो पूजित होने के लिए खाटू में श्रीश्यामदेव का आर्विभाव १५५० (1550) से १६०० (1600) वि॰सं॰ के बीच में हुआ होगा। फिर भी उचित प्रतित होता है कि रावशेखा के सहायक क्षत्रियों में से किसी खाटूवांग नाम के क्षत्रप ने भावी प्रेरणा वश  गुप्तक्षेत्र हेतु निरंजन भूभाग पर सागरोपम विशाल खार खारड़ों के किनारे अपने नाम से खाटू-खेरड़ा बसाया होगा और इसे अपनी राजधानी बनाया होगा।

पुराना अभिलेख (जोधपुरी भाषा में)

वि॰सं॰ १७७७ (1777) दा॰ जेठ सुदी ३ रविवार को श्रीश्यामजी के देवरारी नींव दीनी, फागुण सुदी ३ शुक्रवार कलश चढैयोने, फागुण ७ श्रीश्यामजी महाराज सिंधासन विराजीयानै, सोयोगढ़ अजमेर रै ‘श्री महाराजाधिराज राजेश्वर महाराजा श्री अजीतसिंह जी महाराज कंवर श्री अभयसिंहजी वचनात सौ वे विजय राज सिसोदा माहारी तरफसू अमरसरै, मुहातानी श्री अदर रामलाल चन्दोत जात बोल्या, जोधपुर रै निकणदेहरो कलाश चढयौ दरोगा सा वैजमल जात दिराईयासा, बास जाधपुर वांची टीनणो राम राम वंचणियो, कनीराम नृपदासो जात अजीत सिंह सिसोदिया के कँवर साहब अभयसिंहजी के कर-कमलों के द्वारा श्रीश्यामजी के वर्तमान मन्दिर के निर्माणार्थ नींव लगी। इसका जीर्णोद्धार सेठ मुखराम लक्ष्मीनारायण कानोड़िया, हावड़ा (बंगाल) ने मिती आसोज सुदी १० वि॰सं॰ १९९९ (1999) करवाया।

जैसा की शिला लेख से स्पष्ट है कि श्रीश्यामदेव के वर्तमान देवालय की आधारशिला जोधपुर के राजकुमार श्री अभयसिंह ने ज्येष्ठ शुक्ला तृतीया वि॰सं॰ १७७७ (1777) में रखी और श्रीश्यामदेव का सिंहासनारोहण फाल्गुन शुक्ला ७ वि॰सं॰ १७७७ (1777) को सम्पन्न हुआ। इस देवालय का जिर्णोद्धार आष्विन शुक्ला १० वि॰सं॰ १९९९ (1999) को हुआ अतः देवालय की स्थापना व जिर्णोद्धार में 222 वर्षों का अन्तराल रहा।

श्रीश्याम बाबा के इतिहास के आधार पर खाटू ग्राम का इतिहास

पुराने समय में खटगांव नाम का राजा था (वेद व्यास जी द्वारा रचित स्कंद पुराण के अनुसार राजा दशरथ के वंशज खटवांग राजा) उसने यह गाँव बसाया था, जो अब खाटूधाम के नाम से विख्यात है। बाद में इस गाँव पर खण्डेलों के राजा का अधिकार हो गया। कुछ समय पश्चात यहाँ के राजा ने यह गाँव अपनी लड़की के दहेज में जोधपुर को दे दिया। जोधपुर ने इसे जयपुर को दहेज में दे दिया। जयपुर महाराजा ने किसी माल टैक्स की शर्त के अनुसार खाटू के ठाकुर रामबक्ष जी हरिसिंह जी को बक्सीस में दे दिया था। इस प्रकार स्वतंत्रता प्राप्ति के समय सन् १९४७ (1947) ई॰ तक खाटू श्री हरिसिंह लाड़खानी के अधिकार में था।

किंवदन्तियों पर एक दृष्टि

कई किंवदन्तियों में से एक मान्य संदर्भ के अनुसार खट्वांग नगरी (खाटूधाम) में एक गाय रोज जब धास चरने जाती तो वह एक गुफा में जाकर जमीन के एक भाग पर खड़ी हो जाती और उसके थनों से दूध की धार स्वतः ही जमीन (धरा) में समा जाती जैसे कोई जमीन के अन्दर से उस गौ माता का दूध पी रहा है। घर पर आने के बाद जब गौ मालिक जब उसका दूध निकालने की कोशिश करता तो दूध नहीं निकलता और यह क्रम कई दिनो तक चलने पर गौ मालिक के मन में किसी और व्यक्ति द्वारा उसकी गाय का दूध निकालने या दूधपान का विचार आया और उसने गाय माता का पिछा किया। उसने जब संध्या के समय गौ माता का दूध को जमीन में अपने आप समाते हुए चमत्कार को देखकर चकरा गया। गौ मालिक अचरज भाव के साथ ग्राम राजन के पास गया परन्तु राजा और उनकी सभा ने इस बात पर तनिक भी विश्वास नहीं किया। परन्तु बार बार यह क्रम होने पर जब ग्राम राजा व अन्य ग्रामवासियों ने जब यह चमत्कार खुद अपनी आँखों से देखा तो वे भी चकरा गए। राजा ने उस जमीन को खोदने का आदेश दिया। जैसे ही जमीन खोदी जाने लगी, जमीन के अन्दर से आवाज आई ‘अरे धीरे खोदो, यहाँ मेरा शीश है’। उसी रात राजा को स्वपन में बाबा श्रीश्याम ने दर्शन दिये और अपने अवतरीत होने और मन्दिर बनाने का आदेश दिया। राजा ने बाबा श्रीश्याम का आदेश मानकर पुनः उस जगह की खुदाई की तथा अवतरीत शीश विग्रह को श्रीश्याम मन्दिर खाटू धाम में सिंहासनारोहण किया।

उपरोक्त किंवदन्ति के अलावा खट्वांग के संदर्भ में कोई ऐतिहासिक विवरण उपलब्ध नहीं है। रावशेखा की इस क्षेत्र में गौड़ क्षत्रियों के साथ संवत् २५४५ में हुई लड़ाई को देखते हुए और पोकरण से खाटूश्यामजी तक के विशाल भूभाग पर इनके आधिपत्य का स्मरण करते हुए खट्वागं का गौड़ क्षत्रिय और जागिरदार स्तर का राजा होना अधिक संभव है। वर्तमान गढ़ की धर्मषाला से भी यहां जागीरी राज्य होना ही अधिक संगत लगता है। यही वजह है कि अपने लधु व्यक्तित्व के कारण ही यह जागीरदार राजा खट्वांग ने श्रीश्याम प्रादुर्भाव व प्रतिष्ठा के संर्दभ में कोई शिला लेख लिखने जैसा हौसला दिखा पाया और न श्रीश्याम विग्रह की पूजा के स्थायी प्रंबध की दृष्टि से कोई जागीरी गांव ही भेंट कर पाया। अब तक के विवेचन से क्षत्रप राजा खट्वांग द्वारा १ वि॰सं॰ के युद्ध के कुछ काल बाद ही खाटू बसाने और श्रीश्याम विग्रह की सर्वप्रथम प्रतिष्ठा कराने का समय १५४५ (1545) से ३६०० (3600) के बीच का कोई विक्रम संवत् होना प्रतित होता है।

(उपरोक्त जानकारी मुख्यतः श्रीयुत श्रीधर शास्त्री द्वारा लिखित ग्रन्थ ‘खाटू धामेश्वर श्रीश्याम’ ग्रन्थ पर आधारित है।)

कार्तिक माह की एकादशी को शीश मन्दिर में सुशोभित किया गया, जिसे बाबा श्याम के जन्मदिन के रूप में मनाया जाता है। मूल मंदिर 1027 ई. में रूपसिंह चौहान और उनकी पत्नी नर्मदा कँवर द्वारा बनाया गया था। मारवाड़ के शासक ठाकुर के दीवान अभय सिंह ने ठाकुर के निर्देश पर १७२० (1720) ई. में मंदिर का जीर्णोद्धार कराया। मंदिर इस समय अपने वर्तमान आकार ले लिया और मूर्ति गर्भगृह में प्रतिस्थापित किया गया था।

खाटू श्याम मंदिर मूर्ति दुर्लभ शालिग्राम पत्थर से बना है। खाटू श्याम मंदिर मकराना और संगमरमर से निर्मित है| यहां इस मंदिर में एक प्रार्थना हाल भी है जिससे जगमोहन के नाम से जाना जाता है और इस प्रार्थना हाल की खास बात यह है कि इसकी दीवारों पर पौराणिक दृश्य बनाये हुए हैं| इसके अलावा खाटू श्याम जी के प्रवेश और निकास संगमरमर के बने हैं। साथ ही साथ मुख्य मंदिर के दक्षिण पूर्व में गोपीनाथ मंदिर भी स्थित है। ओर गौरीशंकर मंदिर भी यहाँ पास में ही है।

श्याम, खाटू धाम में स्थित श्याम कुण्ड से प्रकट होकर अपने कृष्ण विराट सालिग्राम श्री श्याम रूप में सम्वत 1777 में निर्मित वर्तमान खाटू श्याम जी मंदिर में भक्तों कि मनोकामनाएं पूर्ण कर रहे हैं।

श्रीश्याम कुण्ड

श्याम जी का शीश रूपावती नदी में बहकर श्याम कुण्ड में आया था। रूपावती नदी को शोभावती नदी के नाम से भी जाना जाता है शास्त्रो के उलेख के अनुसार महाभारत युद्ध मे भगवान श्री कृष्ण ने बर्बरीक का शीश रूपावती नदी में प्रवाहित कर दिया था।

श्रीश्याम कुण्ड के नीचे, पाताल से लेकर चोटी तक जो संगरमर का कार्य है सब श्री रामचन्द्र कर्वा सरदारशहर निवासी ने वि॰सं॰ २०२७ (2027) में करवाया। पेड़ियाँ – श्रीमती शान्तीबाई देहली निवासी ने महिला मण्डल तेलीवाड़ा की ओर से फाल्गुन सुदी १२ वि॰सं॰ २०२६ (2026) में बनवाई। फर्ष- गोविन्दराम तोला, राजगाठिया (कठिहार) वाले ने गुरू पं॰ जुगलकिशोर जी की प्रेरणा से मिती कार्तिक सुदी १२ वि॰सं॰ २०२६ (2026) को बनवाया। शिवजी का मन्दिर- श्याम कुण्ड में जो शिव मंदिर है, सेठ साधुराम सूर्यवक्ष कानूनगो ने बनवाया वि॰सं॰ १९६१ (1961) में।

गोपीनाथ जी का मन्दिर

मंदिर के पुजारी सुवालालजी व्यास हैं। इनके पूर्वज भगवान की सेवा-पूजन करते आ रहें हैं। इस मंदिर में सेठ मिखराम लक्ष्मीनारायण कानोड़िया, हावड़ा (बंगाल) निवासी ने मिती आसोज सुदी १० वि॰सं॰ १९९९ (1999) में संगमरमर का सिंहासन व मूर्ती की प्रतिष्ठा करवाई। कथावाचन-मिश्र परिवार ही कथा वाचन करते हैं।

श्रीश्याम बाग

भक्त आलूसिंह की प्रेरणा से श्रीश्याम बाग का निर्माण मुखराम लक्ष्मीनारायण कानोडिया निवासी, हावड़ा (बंगाल) ने चारों तरफ परकोटा बनवाया। इस बाग में बहुत पुराना ठाकुर जी का मन्दिर है जिनकी प्रतिष्ठा श्री बिद्धीसिंह जी ने मिती माह सुदी ५ बृहस्पतिवार वि॰सं॰ १८५६ (1856) में की थी। मन्दिर में संगमरमर का कार्य सेठ मिसददीलाल डालमियाँ भिवानी वाले ने मिती आसोज सुदी २ वि॰सं॰ २००३ (2003) में करवाया। इस समय पं॰ गोकुल चन्द सेवा पूजा करते है।

यह वही बाग है जहां से भगवान खाटू श्याम को अपर्ण करने के लिए फूल चुने जाते हैं। इसके अलावा बगीचे के बाहर आलू सिंह की समाधि भी स्थित है

पुजारियों का वंश परिचय

श्रीश्यामजी के पुजारी (सेवक / सेवादार) राजपूत चौहान वंश के हैं। इनके पूर्वज प्रारम्भ से ही पूजा करते आ रहें हैं। जो चढावा आता है, चार हिस्सों में वितरिण हो जाता है- (१) श्री नाथूसिंह जी (२) श्री आलूसिंह जी (३) श्री भोपालसिंह जी (४) श्री शिवसहाय जी शास्त्री एवं श्री गोपीनाथ जी माटोलिया बारी-बारी से सेवा पूजा करते हैं। बालाजी का मन्दिर-इसकी सेवा पूजा पं॰ राधाकिशन मदनलाल पुजारी करते हैं। मन्दिर में संगमरमर का कार्य करवाया।

श्री श्याम बाबा की अपूर्व पौराणिक कहानी

बाबा श्री श्याम के जीवनवृत्त वर्णनन की अनेकानेक किंवदंतिया , कहानिया व् अनेकानेक पौराणिक धार्मिक ग्रंथो में अलग अलग तरीके से वर्णित है परन्तु श्याम प्रेमियों में मुख्यतया दो वृत्त का वर्णन मुख्यतया है –

  1. महाभारत ग्रन्थ व् अन्य किवदंतियो के अनुसार
  2. स्कंध पुराण के अनुसार

 

  1. महाभारत ग्रन्थ व् अन्य किवदंतियो के अनुसार –

श्री श्याम बाबा की अपूर्व कहानी मध्यकालीन महाभारत से आरम्भ होती है। वे पहले बर्बरीक के नाम से जाने जाते थे।

श्री खाटू श्याम जी के बचपन का नाम बर्बरीक था। बर्बरीक (बाबा श्री श्याम के जन्म का नाम) का जन्म मध्यकालीन महाभारत के समय हुआ था।   बर्बरीक के जन्म एवं माता पिता के लिए भिन्न भिन्न ग्रंथो एवं पुराणों में भिन्न भिन्न वर्णन है परन्तु महाभारत ग्रन्थ एवं स्कंध पुराण के अनुसार बर्बरीक गदाधारी भीम के पुत्र घटोत्कच और प्रागज्योतिषपुर (वर्तमान आसाम) के राजा दैत्यराज मूर की पुत्री कामकटंककटा “मोरवी” के पुत्र थे।

बाल्यकाल से ही वे बहुत वीर और महान योद्धा थे। उन्होंने युद्ध कला अपनी माँ तथा श्री कृष्ण से सीखी। नव दुर्गा की घोर तपस्या करके उन्हें प्रसन्न किया और तीन अमोघ बाण प्राप्त किये; इस प्रकार तीन बाणधारी के नाम से प्रसिद्ध नाम प्राप्त किया। अग्निदेव प्रसन्न होकर उन्हें धनुष प्रदान किया, जो उन्हें तीनों लोकों में विजयी बनाने में समर्थ थे।

महाभारत का युद्ध कौरवों और पाण्डवों के मध्य अपरिहार्य हो गया था, यह समाचार बर्बरीक को प्राप्त हुए तो उनकी भी युद्ध में सम्मिलित होने की इच्छा जागृत हुई। जब वे अपनी माँ से आशीर्वाद प्राप्त करने पहुँचे तब माँ को हारे हुए पक्ष का साथ देने का वचन दिया। वे अपने नीले रंग के घोड़े पर सवार होकर तीन बाण और धनुष के साथ कुरूक्षेत्र की रणभूमि की ओर चल पड़े।

सर्वव्यापी श्री कृष्ण ने ब्राह्मण भेष धारण कर बर्बरीक के बारे में जानने एवं परीक्षा लेने के लिए उन्हें रोका और उनसे पूछा कि वह मात्र तीन बाण से युद्ध में सम्मिलित होने आया है| ऐसा सुनकर बर्बरीक ने उत्तर दिया कि मात्र एक बाण शत्रु सेना को परास्त करने के लिए पर्याप्त है और ऐसा करने के बाद बाण वापस तूणीर में ही आएगा। यदि तीनों बाणों को प्रयोग में लिया गया तो पूरे ब्रह्माण्ड का विनाश हो जाएगा। यह जानकर भगवान् कृष्ण ने उन्हें बाणों का पराक्रम दिखाने के लिए कहा और लक्ष्य देते हुए कहा कि सामने के पीपल वृक्ष के सभी पत्तों को वेधकर दिखलाओ। बर्बरीक ने परीक्षा चुनौती स्वीकार की और अपने तूणीर से एक बाण निकाला और ईश्वर को स्मरण कर बाण पेड़ के पत्तों की ओर चलाया। बाण ने क्षणभर में पेड़ के सभी पत्तों को वेध दिया और श्री कृष्ण के पैर के इर्द-गिर्द चक्कर लगाने लगा, क्योंकि एक पत्ता उन्होंने अपने पैर के नीचे छुपा लिया था| श्री कृष्ण भी बालक के पराक्रम और बाणो की दिव्यता को जानकर अपने पैर को पत्ते पर से उठा लिया और बाण ने अपना लक्ष्य भेदन कर वापिस बर्बरीक के तूनीर में चला गय। तत्पश्चात, श्री कृष्ण ने बालक बर्बरीक से पूछा कि वह युद्ध में किस ओर से सम्मिलित होगा| बर्बरीक ने अपनी माँ को दिये वचन को दोहराया और कहा युद्ध में जो पक्ष निर्बल और हार रहा होगा उसी को अपना साथ देगा। श्री कृष्ण जानते थे कि युद्ध में हार तो कौरवों की निश्चित है और इस कारण अगर बर्बरीक ने उनका साथ दिया तो परिणाम गलत पक्ष में चला जाएगा।

अत: ब्राह्मणरूपी श्री कृष्ण ने वीर बर्बरीक से दान की अभिलाषा व्यक्त की। बर्बरीक ने उन्हें वचन दिया और दान माँगने को कहा। ब्राह्मण ने उनसे शीश का दान माँगा। वीर बर्बरीक क्षण भर के लिए अचम्भित हुए, परन्तु अपने वचन से अडिग नहीं हो सकते थे। वीर बर्बरीक बोले एक साधारण ब्राह्मण इस तरह का दान नहीं माँग सकता है, अत: ब्राह्मण से अपने वास्तिवक रूप से अवगत कराने की प्रार्थना की। ब्राह्मणरूपी श्री कृष्ण अपने वास्तविक रूप में आ गये। श्री कृष्ण ने बर्बरीक को शीश दान माँगने का कारण समझाया कि युद्ध आरम्भ होने से पूर्व युद्धभूमि पूजन के लिए तीनों लोकों में सर्वश्रेष्ठ क्षत्रिय के शीश की आहुति देनी होती है| शीश दान के लिए तत्पर हुए और  बर्बरीक ने श्री कृष्ण प्रार्थना की कि वे अन्त तक युद्ध देखना चाहते हैं। श्री कृष्ण ने उनकी यह प्रार्थना स्वीकार कर ली और श्री कृष्ण इस बलिदान से प्रसन्न होकर वरदान दिया कि वे कलयुग में उनके नाम श्याम से पूजे जाएँगे। जैसे-जैसे कलियुग का अवतरण होगा, तुम श्याम के नाम से पूजे जाओगे। तुम्हारे भक्तों का केवल तुम्हारे नाम का सच्चे दिल से उच्चारण मात्र से ही उद्धार होगा। उनके शीश को युद्धभूमि के समीप ही एक पहाड़ी पर सुशोभित किया गया| जहाँ से बर्बरीक सम्पूर्ण युद्ध का जायजा ले सकते थे। शीश का दान देने के कारन बर्बरीक शीश के दानी कहलाये।

महाभारत युद्ध की समाप्ति पर पाण्डवों में ही आपसी विवाद हुआ कि युद्ध में विजय का श्रेय किसको जाता है? श्री कृष्ण ने उनसे कहा बर्बरीक का शीश सम्पूर्ण युद्ध का साक्षी है, अतएव उससे बेहतर निर्णायक भला कौन हो सकता है? बर्बरीक के शीश ने उत्तर दिया कि श्री कृष्ण ही युद्ध में विजय प्राप्त करवाई है और युद्ध में सबसे महान पात्र हैं, उनकी शिक्षा, उपस्थिति, युद्धनीति ही निर्णायक थी। उन्हें युद्धभूमि में सिर्फ उनका सुदर्शन चक्र घूमता हुआ दिखायी दे रहा था जो शत्रु सेना को काट रहा था। महाकाली, कृष्ण के आदेश पर शत्रु सेना के रक्त से भरे प्यालों का सेवन कर रही थीं।

बर्बरीक का शीश खाटू नगर (वर्तमान राजस्थान राज्य के सीकर जिला) में श्रीखाटू श्याम जी मंदिर में सुशोभित है और श्री श्याम नाम से विश्व भर में पूजे जा रहे

 

  1. स्कंध पुराण के अनुसार –

ऋषि वेदव्यास द्वारा रचित स्कन्द पुराण के अनुसार महाबली भीम एवं हिडिम्बा के पुत्र वीर घटोत्कच के शास्त्रार्थ की प्रतियोगिता जीतने पर इनका विवाह प्रागज्योतिषपुर (वर्तमान आसाम) के राजा दैत्यराज मूर की पुत्री कामकटंककटा से हुआ। कामकटंककटा को “मोरवी” नाम से भी जाना जाता है। घटोत्कच व माता मोरवी को एक पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई जिसके बाल बब्बर शेर की तरह होने के कारण इनका नाम बर्बरीक रखा गया।

वीर महाबली घटोत्कच बर्बरीक को भगवान् श्री कृष्ण के पास द्वारका ले गये और उन्हें देखते ही श्री कृष्ण ने वीर बर्बरीक से कहा— हे पुत्र मोर्वेय! जिस प्रकार मुझे घटोत्कच प्यारा है, उसी प्रकार तुम भी मुझे प्यारे हो। तत्पश्चात् वीर बर्बरीक ने श्री कृष्ण से पूछा— हे प्रभु! इस जीवन का सर्वोत्तम उपयोग क्या है और उसके लिए मुझे क्या करना चाहिए? वीर बर्बरीक के इस निश्छ्ल प्रश्न को सुनते ही श्री कृष्ण ने कहा— हे पुत्र, इस जीवन का सर्वोत्तम उपयोग, परोपकार व निर्बल का साथी बनकर सदैव धर्म का साथ देने से है। जिसके लिए तुम्हें बल एवं शक्तियाँ अर्जित करनी पड़ेगी। अतएव तुम महीसागर क्षेत्र (गुप्त क्षेत्र) में नवदुर्गा की आराधना कर शक्तियाँ अर्जन करो। श्री कृष्ण के कहने पर बालक बर्बरीक ने भगवान् को प्रणाम किया। श्री कृष्ण ने उनके सरल हृदय को देखकर वीर बर्बरीक को “सुहृदय” नाम से अलंकृत किया।

तत्पश्चात् बर्बरीक ने समस्त अस्त्र-शस्त्र, विद्या हासिल कर, महीसागर क्षेत्र में ३ वर्ष तक नवदुर्गा की आराधना की, सच्ची निष्ठा एवं तप से प्रसन्न होकर भगवती जगदम्बा ने वीर बर्बरीक के सम्मुख प्रकट होकर तीन बाण एवं कई शक्तियाँ प्रदान कीं, जिससे तीनों लोकों पर विजय प्राप्त की जा सकती थी। यहाँ उन्हें “चण्डील” नाम मिला। माँ जगदम्बा ने वीर बर्बरीक को उसी क्षेत्र में अपने परम भक्त विजय नामक एक ब्राह्मण की सिद्धि को सम्पूर्ण करवाने का निर्देश देकर अंतर्ध्यान हो गयीं। जब विजय ब्राह्मण का आगमन हुआ तो वीर बर्बरीक ने पिंगल, रेपलेंद्र, दुहद्रुहा तथा नौ कोटि मांसभक्षी पलासी राक्षसों के जंगलरूपी समूह को अग्नि की भाँति भस्म करके उनका यज्ञ सम्पूर्ण कराया। उस ब्राह्मण का यज्ञ सम्पूर्ण करवाने पर देवी-देवता वीर बर्बरीक से अति प्रसन्न हुए और प्रकट होकर यज्ञ की भस्मरूपी शक्तियाँ प्रदान कीं।

महाभारत युद्ध प्रारम्भ होने पर वीर बर्बरीक ने अपनी माता मोरवी के सम्मुख युद्ध में भाग लेने की इच्छा प्रकट की। तब माता ने इन्हें युद्ध में भाग लेने की आज्ञा इस वचन के साथ दी की तुम युद्ध में हारने वाले पक्ष का साथ निभाओगे। जब वीर बर्बरीक युद्ध में भाग लेने चले तब भगवान श्री कृष्ण ने महाभारत युद्ध के पहले ही इनको पूर्व जन्म (यक्षराज सूर्यवर्चा) के ब्रह्मा जी द्वारा प्राप्त अल्प श्राप के कारण एवं यह सोचकर कि यदि वीर बर्बरीक युद्ध में भाग लेंगे तो कौरवों की समाप्ति केवल १८ (18) दिनों में महाभारत युद्ध में नहीं हो सकती और पाण्डवों की हार निश्चित हो जाएगी। ऐसा सोचकर श्री कृष्ण ने वीर बर्बरीक का शिरोच्छेदन कर महाभारत युद्ध से वंचित कर दिया। उनके ऐसा करते ही रणभूमि में शोक की लहर दौड़ गयी, तत्क्षण रणभूमि में १४ देवियाँ प्रकट हो गयीं। देवियों ने वीर बर्बरीक के पूर्व जन्म (यक्षराज सूर्यवर्चा) को ब्रह्मा जी द्वारा प्राप्त श्राप का रहस्योद्घाटन सभी उपस्थित योद्धाओं के समक्ष निम्न प्रकार किया—

देवियों ने कहा: “द्वापरयुग के आरम्भ होने से पूर्व मूर दैत्य के अत्याचारों से व्यथित होकर पृथ्वी अपने गौस्वरुप में देव सभा में उपस्थित होकर बोलीं— “हे देवगण! मैं सभी प्रकार का संताप सहन करने में सक्षम पर मूर दैत्य के अत्याचारों से अति दु:खी हूँ। आपलोग इस दुराचारी से मेरी रक्षा कीजिए, मैं आपके शरण में आयी हूँ।”

गौस्वरुपा धरा की करूण पुकार सुनकर सारी देवसभा में एकदम सन्नाटा-सा छा गया। थोड़ी देर के मौन के पश्चात् ब्रह्मा जी ने कहा— “अब तो इससे छुटकारा पाने का एक मात्र उपाय भगवान् विष्णु की शरण है और पृथ्वी के इस संकट निवारण हेतु उनसे प्रार्थना करनी चाहिए।”

तभी देवसभा में विराजमान यक्षराज सूर्यवर्चा ने कहा— “हे देवगण! मूर दैत्य इतना प्रतापी नहीं, जिसका संहार केवल विष्णु जी ही कर सकें। हर एक बात के लिए हमें उन्हें कष्ट नहीं देना चाहिए। आपलोग यदि मुझे आज्ञा दें तो मैं ही उसका वध कर सकता हूँ।”

इतना सुनते ही ब्रह्मा जी बोले— “अपने आप को विष्णु जी से श्रेष्ठ समझने वाले अज्ञानी! मैं तेरा पराक्रम जानता हूँ, तुम्हारे अहंकार का दण्ड तुम्हें अवश्य मिलेगा। तुम्हारा जन्म राक्षस योनि में होगा और जब द्वापरयुग के अंतिम चरण में पृथ्वी पर एक भीषण धर्मयुद्ध होगा तभी तुम्हारा शिरोछेदन स्वयं भगवान विष्णु द्वारा होगा और तुम सदा के लिए राक्षस बने रहोगे।”

ब्रह्माजी के इस अभिशाप के साथ ही यक्षराज सूर्यवर्चा का मिथ्या गर्व भी चूर-चूर हो गया। वह तत्काल ब्रह्मा जी के चरणों में गिर पड़ा और विनम्र भाव से बोला— “भगवन! भूलवश निकले इन शब्दों के लिए मुझे क्षमा कर दीजिए मैं आपके शरणागत हूँ। त्राहिमाम! त्राहिमाम! रक्षा कीजिए प्रभु!”

यह सुनकर ब्रह्मा जी में करुण भाव उमड़ पड़े, वह बोले— “वत्स! तुने अभिमानवश देवसभा का अपमान किया है, इसलिए मैं इस अभिशाप को वापस नहीं ले सकता हूँ। हाँ, इसमें संसोधन अवश्य कर सकता हूँ कि स्वयं भगवान् श्री कृष्ण तुम्हारा शिरोच्छेदन अपने सुदर्शन चक्र से करेंगे, देवियों द्वारा तुम्हारे शीश का अभिसिंचन होगा। फलतः तुम्हें कलयुग में देवताओं के समान पूजनीय होने का वरदान स्वयं भगवान् श्री कृष्ण भगवान से प्राप्त होगा।”

अपने अभिशाप को वरदान में परिणति देख यक्षराज सूर्यवर्चा उस देवसभा से अदृश्य हो गये और कालान्तर में पृथ्वी लोक में महाबली भीम के पुत्र घटोत्कच एवं मोरवी के पुत्र रूप में बर्बरीक के रूप में जन्म लिया।

तत्पश्चात् भगवान् श्री हरि ने भी इस प्रकार यक्षराज सूर्यवर्चा से कहा—

तत्सतथेती तं प्राह केशवो देवसंसदि !

शिरस्ते पूजयिषयन्ति देव्याः पूज्यो भविष्यसि !! (स्कन्द पुराण, कौ. ख. ६६.६५)

भावार्थ: “देवताओं की सभा में श्री हरि ने कहा— हे वीर! ठीक है, तुम्हारे शीश की पूजा होगी और तुम देवरूप में पूजित होकर प्रसिद्धि पाओगे।”

इत्युक्ते चण्डिका देवी तदा भक्त शिरस्तिव्दम !

अभ्युक्ष्य सुधया शीघ्र मजरं चामरं व्याधात !!

यथा राहू शिरस्त्द्वत तच्छिरः प्रणामम तान !

उवाच च दिदृक्षामि तदनुमन्यताम !! (स्कन्द पुराण, कौ. ख. ६६.७१,७२)

भावार्थ: “ऐसा कहने के बाद चण्डिका देवी ने उस भक्त राज (श्री वीर बर्बरीक) के शीश को जल्दी से अमृत से अभ्युक्ष्य (छिड़क) कर  शीश अजर और अमर बना दिया और इस नविन जागृत शीश ने उन सबको प्रणाम किया और कहा— “मैं युद्ध देखना चाहता हूँ, आपलोग इसकी स्वीकृति दीजिए।”

ततः कृष्णो वच: प्राह मेघगम्भीरवाक् प्रभु: !

यावन्मही स नक्षत्र याव्च्चंद्रदिवाकरौ !

तावत्वं सर्वलोकानां वत्स! पूज्यो भविष्यसि !! (स्कन्द पुराण, कौ. ख. ६६.७३,७४)

भावार्थ: तत्पश्चात् मेघ के समान गम्भीरभाषी प्रभु श्री कृष्ण ने कहा— ” हे वत्स! जबतक यह पृथ्वी, नक्षत्र है और जबतक सूर्य, चन्द्रमा है, तबतक तुम सभी के लिए पूजनीय होओगे।

देवी लोकेषु सर्वेषु देवी वद विचरिष्यसि !

स्वभक्तानां च लोकेषु देवीनां दास्यसे स्थितिम !! (स्कन्द पुराण, कौ. ख. ६६.७५,७६)

भावार्थ: “तुम सैदव देवियों के स्थानों में देवियों के समान विचरते रहोगे और अपने भक्तगणों के समुदाय में कुल देवियों की मर्यादा जैसी है वैसी ही बनाए रखोगे”

बालानां ये भविष्यन्ति वातपित्त क्फोद्बवा: !

पिटकास्ता: सूखेनैव शमयिष्यसि पूजनात !! (स्कन्द पुराण, कौ. ख. ६६.७७)

भावार्थ: “तुम्हारे बालरुपी भक्तों के जो वात, पित्त, कफ से पीड़ित रोगी होंगे, उनका रोग बड़ी सरलता से मिटाओगे”

इदं च श्रृंग मारुह्य पश्य युद्धं यथा भवेत !

इत्युक्ते वासुदेवन देव्योथाम्बरमा विशन !! (स्कन्द पुराण, कौ. ख. ६६.७८)

भावार्थ: “और इस पर्वत की चोटी पर चढ़कर जैसे युद्ध होता है, उसे देखो, इस भाँती वासुदेव श्री कृष्ण के कहने पर सब देवियाँ आकाश में अंतर्ध्यान कर गयीं।”

बर्बरीक शिरश्चैव गिरीश्रृंगमबाप तत् !

देहस्य भूमि संस्काराश्चाभवशिरसो नहि !

ततो युद्धं म्हाद्भुत कुरु पाण्डव सेनयो: !! (स्कन्द पुराण, कौ. ख. ६६.७९,८०)

भावार्थ: “वीर बर्बरीक का शीश पर्वत की चोटी पर पहुँच गया एवं उनके धड़ को शास्त्रीय विधि से संस्कार कर दिया गया पर शीश की नहीं किया गया (क्योंकि शीश देव रूप में परिणत हो गया था) उसके बाद कौरव और पाण्डव सेना में भयंकर युद्ध हुआ।”

योगेश्वर परमेश्वर भगवान् श्री कृष्ण ने वीर बर्बरीक के शीश को रणभूमि में प्रकट हुईं १४ देवियों (सिद्ध, अम्बिका, कपाली, तारा, भानेश्वरी, चर्ची, एकबीरा, भूताम्बिका, सिद्धि, त्रेपुरा, चण्डी, योगेश्वरी, त्रिलोकी, जेत्रा) के द्वारा अमृत से सिंचित करवाकर उस शीश को देवत्व प्रदान करके अजर-अमर कर दिया एवं भगवान् श्री कृष्ण ने वीर बर्बरीक के शीश को कलियुग में देव रूप में पूजित होकर भक्तों की मनोकामनाओं को पूर्ण करने का वरदान दिया। वीर बर्बरीक ने भगवान् श्री कृष्ण के समक्ष महाभारत के युद्ध देखने की अपनी प्रबल इच्छा को बताया, जिसे श्री कृष्ण ने वीर बर्बरीक के देवत्व प्राप्त शीश को ऊँचे पर्वत पर रखकर पूर्ण की एवं संस्कार शास्त्रोक्त विधि से सम्पूर्ण करवाया|

वीरवर मोरवीनंदन श्री बर्बरीक का चरित्र स्कन्द पुराण के “माहेश्वर खंड के अंतर्गत द्वितीय उपखंड ‘कौमारिक खंड'” में सुविस्तारपूर्वक दिया हुआ है। .. ‘कौमारिक खंड’ के ५९वे अध्याय से ६६वे अध्याय तक यह दिव्य कथा वर्णित है। ऋषि वेदव्यास जी ने स्कन्द पुराण में “माहेश्वर खंड के द्वितीय उपखंड कौमरिका खंड” के ६६ वें अध्याय के ११५वे एवं ११६वे श्लोक में इनकी स्तुति इस आलौकिक स्त्रोत्र से भी की है।

५९वा अध्याय : घटोत्कचआख्यान वर्णनम

६०वा अध्याय : मोर्वीघटोत्कच संवाद एवं घटोत्कचद्वारा मोर्व्याबर्बरीकपुत्रोत्पत्ति वर्णनम

६१वा अध्याय : महाविद्यासाधने गणेश्वरकल्प वर्णनम (बर्बरीकआख्यान वर्णनम)

६२वा अध्याय : कालिकाया रुद्रविर्भाव वर्णनम

६३वा अध्याय : बर्बरीकवीरता वर्णनम

६४वा अध्याय : भीमततपोत्रबर्बरीकसंवाद वर्णनम

६५वा अध्याय : देवीसत्वन वर्णनम, कलेश्वरी वर्णनम

६६वा अध्याय : बर्बरीकबल वर्णनम, श्री कृष्णेनबर्बरीकशिरपूजनम कथम, गुप्तक्षेत्रेमहात्म्य वर्णनम

 

कुछ प्रसिद्ध नाम

बर्बरीक

श्री खाटू श्याम जी का बाल्यकाल में नाम बर्बरीक था। उनकी माता, गुरुजन एवं रिश्तेदार उन्हें इसी नाम से जानते थे। श्याम नाम उन्हें कृष्ण ने दिया था। आपका यह नाम इनके घुंघराले बाल होने के कारण पड़ा।

शीश के दानी

जब श्री कृष्ण ने उनसे उनके शीश की मांग की तो बर्बरीक ने अपना शीश बिना किसी झिझक के उनको अर्पित कर दिया और भक्त उन्हें शीश के दानी के नाम से पुकारने लगे। श्री कृष्ण पाण्डवों को युद्ध में विजयी बनाना चाहते थे। बर्बरीक पहले ही अपनी माँ को हारे हुए का साथ देने का वचन दिया था| युद्ध के पहले एक वीर पुरुष के सिर की भेंट युद्धभूमिपूजन के लिए करनी थी इसलिए श्री कृष्ण ने उनसे शीश का दान मांगा।

लखदातार

भक्तों की मान्यता रही है कि बाबा से अगर कोई वस्तु मांगी जाती है तो बाबा लाखों-बार  देते हैं इसीलिए उन्हें लखदातार के नाम से भी जाना जाता है।

हारे का सहारा

पौराणिक आलेख मे बताया गया है श्याम बाबा ने हारने वाले पक्ष का साथ देने का प्रण लिया था, इसीलिए श्याम बाबा को हारे का सहारा भी कहा जाता है।

हारे हुए की तरफ से युद्ध करने की प्रतिज्ञा व् दादी माँ हिडिम्बा से मिले आदेश के कारण ही। भगवान श्री कृष्ण की मन में उठी समस्या के कारण ही बर्बरीक व बाबा के शीश को भगवान वासुदेव द्वारा माँगा गया। क्योंकि एक तो कुरु सेना अठारह दिनों से पहले खत्म नही हो सकती थी। तथा अन्य तथ्य यह था कि महाबली बर्बरीक हारे हुए कमजोर की तरफ से युद्ध करते इस लिए अंत में महाबली बर्बरीक के इलावा कोई नही बचता। क्योंकि जिस तरफ से वह युद्ध करते तो सामने वाला कमजोर हो जाता। फिर अपनी प्रतिज्ञा अनुसार उन्हें हारे हुए की तरफ से युद्ध करना होता। अतः अंत में केवल महाबली बर्बरीक ही जीवित रहते।

मोरछड़ी धारक

श्री कृष्ण ने बाबा श्याम को अपना नाम दिया और श्री कृष्ण हमेशा मोर मुकुट धारण करते थे | श्याम बाबा हमेशा मयूर के पंखों की बनी हुई छड़ी रखते हैं इसलिए इन्हें मोरछड़ी वाला भी कहते हैं।

 

।। श्री श्याम आशीर्वाद ।।
।। श्याम श्याम तो मैं रटू , श्याम यही जीवन प्राण ।।
।। श्याम भक्त जग में बड़े उनको करू प्रणाम ।।
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